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Duboya Mujhko Hone Ne

Hardbound
Hindi
9788126315734
1st
2008
282
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₹250.00

डुबोया मुझको होने ने - कृष्ण बलदेव वैद शब्द और अर्थ के बीच पसरे संशय के रचनात्मक तनाव को जीने वाले हिन्दी के अकेले लेखक हैं। 'डुबोया मुझको होने ने' के पन्नों पर यह रचनात्मक तनाव डायरी के शिल्प में व्यक्त हुआ है। 1991-1997 के बीच का समय संक्षिप्त व सघन होकर वैद की लेखनी से दर्ज हुआ है। ऐसा लगता है मानो लम्हात की नाज़ुक हथेलियों पर अहसास की 'महीन ख़ामोश बूँदा बाँदी' हो रही हो। कृष्ण बलदेव बैद अपनी डायरी में ज़िन्दगी के छोटे-छोटे दृश्य बनाते हैं जिन्हें मिलाकर उनके व्यक्ति और रचनाकार की एक मुकम्मल व मख़सूस तस्वीर बनती है। उन्होंने ईमान की रोशनी में थोड़ी दिखती-थोड़ी छिपती ज़िन्दगी की इबारत पेश की है। व्यक्ति, स्थान, प्रसंग, किताब, लेखन, यात्रा और समारोह—ये सब माध्यम हैं, जिनके द्वारा वैद निरन्तर अपना ही अन्वेषण करते हैं। उनके बाहरी और भीतरी द्वन्द्वों को उजागर करती यह डायरी एक अत्यन्त अर्थपूर्ण रचना में ढल गयी है। इसमें मौत की आहट बार-बार सुनायी पड़ती है। साथ ही, इस आहट का पीछा करती ज़िन्दगी की पदचाप भी सुनी जा सकती है। वैद अपनी भाषा से सामान्यताओं के संसार में अप्रत्याशित अर्थ के लिए जगह बनाते हैं, जैसे 'कोई फ़िल्मी गाना किसी जख़्मी परिन्दे की तरह फड़फड़ा रहा है।' संवेदना का आयतन इतना है कि उसमें कुतिया कुकी का सुख-दुख भी समाया हुआ है। मितकथन वैद का स्वभाव है। इसलिए 'डुबोया मुझको होने ने' पढ़ते हुए कई बार महसूस हो सकता है कि जैसे कृष्ण बलदेव वैद के चारों ओर एक 'ख़ामोशी का ख़ैमा' तना है और कभी-कभी कुछ आवाज़ें छनकर बाहर आ जाती हैं। हमारे समय के एक बड़े लेखक की एक महत्त्वपूर्ण कृति।—सुशील सिद्धार्थ

कृष्ण बलदेव वैद (Krishna Baldev Vaid )

कृष्ण बलदेव वैद - जन्म: 27 जुलाई, 1927, डिगा (पंजाब)। शिक्षा: एम.ए. (अंग्रेज़ी), पंजाब विश्वविद्यालय; पीएच.डी., हार्वर्ड यूनिवर्सिटी। अध्यापन: हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय (1950-62); पंजाब विश्वविद्य

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