छाया मत छूना मन - घास-फूस के टूटे कच्चे घर! आकाश की झीनी छत! धरती पर कच्ची मिट्टी की मैली चादर! दो जून रूखी-सूखी मिल पाना भी मुश्किल...! मर-मरकर जीने वालों की यह व्यथा-कथा आज का युग-सत्य भी है, कहीं। बर्फ़ीले पर्वतीय क्षेत्र की इस कथा में एक अंचल विशेष की धरती की धड़कन है, एक जीता-जागता अहसास भी। गोमती, पिरमा, कुन्नू के माध्यम से सन्त्रस्त मानव-समाज के कई चित्र उजागर हुए हैं। इसलिए यह कुछ लोगों की कहानी, कहीं 'सबकी कहानी' बन गयी है—देश-काल की परिधि से परे।
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