ज़ख्म हमारे -
सुप्रसिद्ध दलित लेखक और चिन्तक मोहनदास नैमिशराय का यह उपन्यास एक अति संवेदनशील कथाकृति होने के साथ-साथ समकालीन इतिहास का एक मार्मिक दस्तावेज़ भी है। इसके माध्यम से लेखक ने गुजरात की उस महाविभीषिका का प्रभावशाली चित्रण किया है जिसकी ज्वाला में हज़ारों ज़िन्दगियाँ झुलस गयीं। कथा की शुरुआत होती है भूकम्प से, जो धर्मों और जातियों के बीच विभेद नहीं करता। पर सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि अलग-अलग होने से समाज के विभिन्न वर्ग अलग-अलग तरीक़े से प्रभावित होते हैं। मानो दर्द भी जातियों में बँटा होता हो। वर्ग विभेद की यही स्थिति भूकम्प राहत के कार्यक्रम में भी दिखाई पड़ती है। यहाँ भी दलित दलित ही रहता है - समाज का एक कुचला हुआ नायक, जिसके साथ पशुओं की तरह सलूक किया जा सकता है।
लेकिन गुजरात के जन जीवन में एक और भूकम्प आने को है, जिसमें इनसानियत के सारे मूल्य साम्प्रदायिक विद्वेष की भेंट चढ़ जाते हैं। गोधरा कांड को बहाना बना कर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ जैसी पैशाचिक क्रूरता दिखाई जाती है, उसका दूसरा उदाहरण खोज पाना मुश्किल है। 'जख़्म हमारे' पहला उपन्यास है जिसमें गुजरात के साम्प्रदायिक तांडव के बारीक़ विवरण इतने सक्षम रूप से उपलब्ध होते हैं। लेकिन अपने मूल रूप में यह दलित पीड़ा का लोमहर्षक आख्यान है, जिसमें हम पाते हैं कि सिर्फ़ दलित परिवार में जन्म लेने के कारण देश के एक बड़े हिस्से को लगातार अपमानित तथा प्रताड़ित होना पड़ता है। इससे भी आगे, यह दलित-मुस्लिम एकता की खोज की कहानी है, जो दूषित सवर्ण हिन्दू मानसिकता की काट बन सकती है। इस एकता को सम्भव बनाने के लिए जिस साहस और संघर्ष की आवश्यकता है, उसका सजीव वर्णन कर मोहनदास नैमिशराय ने यह भी संकेत कर दिया है कि रास्ता किधर है। हमें पूरा विश्वास है, यह महत्त्वपूर्ण कृति न केवल दलित साहित्य की अमूल्य निधि साबित होगी, बल्कि साम्प्रदायिकता-विरोधी शक्तियों को ताक़त भी प्रदान करेगी।
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