अपने समकालीन यथार्थ की सही पहचान रखनेवाला समीक्षक ही समकालीन साहित्य के साथ-साथ अतीत के साहित्य का भी वस्तुपरक मूल्यांकन कर सकता है। इस कृष्टि से देवीशंकर अवस्थी की यह पुस्तक सर्वथा नये परिप्रेक्ष्य में भक्ति-साहित्य का आकलन प्रस्तुत करती है। देवीशंकर अवस्थी नवलेखन की सम्पूर्ण त्वरा और उसकी प्रवृत्तिगत विविधता पर जिस अधिकार के साथ अपनी बात कह रहे थे, उसी अधिकार के साथ एकदम आधुनिक संवेदना से ओत-प्रोत होकर भक्ति के सन्दर्भ और उसकी परम्परा पर भी विचार कर रहे थे । धर्मशास्त्र, तत्त्वमीमांसा, इतिहास और समाजविज्ञान के क्षेत्र में हो रहे नये अनुसन्धानों के आलोक में भक्ति आन्दोलन के बोधपक्ष और उसकी ऐतिहासिक क्रमिकता पर भी उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया था। वैदिक संस्कृति और लोक में पहले से चली आ रही अवैदिक भावधाराओं के बीच की अन्तःक्रियाओं को समझने के मामले में उनकी दृष्टि अचूक है। यही दृष्टि भक्ति साहित्य को सम्यक् सन्दर्भ प्रदान करती है।
योग, शैव, नाथ, सिद्ध, तन्त्र, सहजिया, वैष्णव और सूफ़ी मतों की विभिन्न धाराओं और उपधाराओं के बीच सिर्फ़ टकराहट ही नहीं थी, आदान-प्रदान और अन्तरावलम्बन के पुष्ट प्रमाण भी थे। इन विभिन्न प्रवृत्तियों के अन्तःसम्बन्ध और उनकी बहुरंगी विविधता को समझने में यह पुस्तक गुत्थी सुलझाने वाली समालोचना की नयी शुरुआत का संकेत देती है। समीक्षा के क्षेत्र में यही नयी उद्भावना होती है। तभी यह पुस्तक ऐतिहासिक अन्वेषण और साहित्यिक समालोचना-दोनों प्रणालियों को एकाकार करती है। इसमें एक ओर जहाँ भक्ति के पौराणिक सन्दर्भ का विश्लेषण है तो दूसरी ओर आधुनिक दृष्टि से सर्वथा नयी व्याख्या भी है। लोकाश्रित भावबोध के भीतर से अंकुरित प्रेम और भक्ति के मध्यकालीन सन्दर्भों और विचार बिन्दुओं की विशद विवेचना करने में यह पुस्तक अन्तर्दृष्टि का नया गवाक्ष खोलती है।
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