हिन्दी में जनवादी काव्यधारा का विकास भक्तिकाल से प्रारम्भ होता है। भक्तिकाव्य की अन्तर्वस्तु मानवीय प्रेम है। भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। इस स्वर्ण युग के निर्माण के पीछे सोने-चाँदी का नहीं बल्कि भारत की मिट्टी का हाथ है। मानवीय प्रेम वास्तव में जनवाद का ही एक उच्च रूप है जिसे विद्वानों के उद्धरणों द्वारा पुष्ट किया गया है। भक्तिकाल का जनवादी स्वरूप हमें जनपदीय कवियों की कविताओं में प्राप्त होता है। जनपदीय सन्तों ने लोक धुनों पर आधारित अपनी कविताओं में जनता के सुख-दुःख के गीत गाये। भक्तिकाल के कवियों का सबसे बड़ा जनवादी प्रयास पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधना था जिसमें ये सन्त कवि काफ़ी सफल सिद्ध हुए।
देश-प्रेम एवं स्वातन्त्र्य-प्रेम द्विवेदी युग जनवादी कवियों में काफ़ी सशक्त रूप से अभिव्यक्त हुआ है। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार इस युग की कविताओं में बड़े सशक्त ढंग से अभिव्यक्त हुआ है। द्विवेदी युग की जनवादी कविताओं में मात्र देशभक्ति का उद्घोष ही नहीं हुआ है बल्कि देश जिनसे बनता है, उस सर्वसाधारण जनता के स्वेदकण एवं आँसू भी इन कविताओं में दिखाई पड़ते हैं।
जनान्दोलनों की अभिव्यक्ति इस दौर की जनवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। नक्सलबाड़ी विद्रोह, पी.ए.सी. विद्रोह, भाषाई आन्दोलन, सन् 1974 का युवा आन्दोलन, आपात्काल, असम एवं पंजाब जैसी समस्याओं पर इस काल के कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। इस काल के कवियों की कविताओं में अनेक जनान्दोलनों पर कवि एवं जनता के नज़रिये से भावनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है।
- पुस्तक से
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