शहरयार को पढ़ता हूँ तो रुकना बहुत पड़ता है... पर यह रुकावट नहीं, बात के पड़ाव हैं, जहां सोच को सुस्ताना पड़ता है- सोचने के लिए। चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द शइस्तगी है। शायद यही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते रहते हैं... सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं जो झट से गुजर जाते हैं बल्कि उन पेड़ों के तरह जो दूर चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं। शहरयार की शायरी में एक अंदरूनी सन्नाटा है वह बिना कहे अपने वक्त के तमाम तरह के सन्नाटों से वाबस्ता हो जाता है... सोच में डूबे हुए यह सन्नाटे जब दिल की बेचैन बस्ती में गूंजते हैं तो कभी निहायत निजी बात कहते हैं, कभी इतिहास के पन्ने पलट देते हैं, कभी डायरी की इबारत बन जाते हैं। कभी उसी इबारत पर पड़े आंसूओं के छींटों से मिट गया या बदशक्ल हो गये अलफाज़ को नये अहसास के सांस से दुबारा ज़िंदा कर देते हैं... शायद इसलिए शहरयार की शायरी मुझे एकांति ख़लिश और शिकायती तेवर से अलग बड़ी गहरी सांस्कृतिक सोच की शायरी लगती है, जो दिलो-दिमाग की बंजर बनाती गयी ज़मीन को सींचती है। -कमलेश्वर
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