यह ग्रन्थ बहुत ही विचारोत्तेजक है, इसमें कोई सन्दह नहीं । ग्रन्थकर्ता ने अपने भाषा-सम्बन्धी विशेष ज्ञान एवं सूक्ष्म वैज्ञानिक दृष्टि से काम लेते हुए बहुत से ऐसे निष्कर्ष निकाले हैं, जिनसे आधुनिक (पाश्चात्य पद्धति का) भाषाविज्ञान भी असहमत नहीं हो सकता। वर्तमान भाषाओं की तुलनात्मक विवेचना में वाजपेयीजी ने अपने कौशल का अच्छा परिचय दिया है। ऐतिहासिक विकास के ऊपर भी यहाँ प्रकाश डाला गया है, पर विस्तार से बचने के लिए वे 'अपभ्रंश' जैसी (हमारे काल में समीप की) भाषा पर उतना प्रकाश नहीं डाल पाये। बोल-चाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में सदा और सभी देशों में अन्तर होता है, इस तत्व को खींचते हुए वे कहते हैं कि शब्दों के आदि में आने वाले 'ण' जैसे वर्णों का प्रयोग भी कृत्रिम है, 'साहित्य- समय' मात्र है। आज की पश्चिमी ( हिन्दी - क्षेत्र की ) भाषाओं में 'खाणा' 'पीणा' जैसी सैकड़ों शब्दों में 'णा' कार का बाहुल्य है, पर वह शब्द के आदि में नहीं आता। यह बाहुल्य कदाचित् द्रविड़ भाषा का प्रभाव है, पर यह देखना है कि द्रविड़ भाषाओं में कभी और कहीं शब्द के आदि में भी 'णा' कार आता है, या नहीं। वाजपेयीजी की विवेचना कितनी विचारोत्तेजक है, इसका यह एक प्रमाण है।
वाजपेयीजी ने आठ अध्यायों में संक्षेप में भाषाविज्ञान पर प्रकाश डाला है। देश और काल दोनों में भाषा का विकास हुआ है। दोनों में व्यापक ज्ञान और अनुभव होने पर ही कोई लेखक अपने विषय के साथ न्याय कर सकता है। वाजपेयीजी में ये दोनों ही गुण हैं। साथ ही सनातनी होने पर भी विद्या के सम्बन्ध में उनकी कट्टरता उलटा रास्ता नहीं पकड़ती यह तो इसी से मालूम होगा कि वेद-काल में भी, वेद की भाषा से पृथक्, एक तत्कालीन 'प्राकृतभाषा' वे मानते हैं। इस विषय को उन्होंने छुआ मात्र है, पर इसके भीतर और जाने की आवश्यकता है। यह उनके उल्लेख से ज्ञात होता है। ग्रन्थकर्ता ने प्राकृतों का एक स्वतन्त्र वर्गीकरण किया है। उनके अनुसार 'प्रथम प्राकृत' वेदकालीन प्राकृत थी ।
दूसरी प्राकृत 'पालि' और प्रसिद्ध 'प्राकृत' तथा तीसरी प्राकृत 'अपभ्रंश'। आधुनिक विज्ञानी भी प्राकृतों में पालि को सम्मिलित करते हों। इसमें सन्देह नहीं कि भाषा के नाम पर 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग पालि-काल में हुए 'महाभाष्य' कार पतंजलि भी करते हैं। पर यह वह समय है, जब कि 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग पालि-काल में हुए थे । 'अपभ्रंश' का अर्थ यौगिक लिया गया था, अर्थात् जो भाषा व्याकरण और उच्चारण में संस्कृत से भ्रष्ट हो। 'प्राकृत' शब्द उस भाषा के लिए रूढ़ हुआ, जो ईसवी सन् के आरम्भ से छठी सदी के मध्य तक (अश्वघोष और दंडी के थोड़ा पहले तक) बोली जाती थी। उसके बाद की भाषाएँ ‘अपभ्रंश' नाम से जानी जाती हैं और 'प्राकृत' से भी पहले की भाषाएँ ‘पालि' समुदाय में आती हैं। 'प्राकृत' भाषाओं के समुदाय का नाम है, यह सर्वविदित है। पालि-काल में 'प्राकृत' का अस्तित्व नहीं हो सकता, न प्राकृत-काल में 'अपभ्रंश' का। हाँ, प्राकृत-काल में या अपभ्रंशकाल में भी पालि में साहित्य रचा जा सकता था। आज भी सिंहल, बर्मा, स्याम आदि में ऐसा किया जाता है। बोल-चाल की भाषा के तौर पर ये भाषाएँ एक दूसरे के पश्चात् अस्तित्व में आयीं । प्राकृत-कालीन कालीदास की कृति में 'अपभ्रंश' का पद्य आना उसके क्षेपक होने को ही सिद्ध करता है।
देश के अनुसार आज की भाषाएँ कैसे भिन्न-भिन्न रूपों में विकसित हुई हैं, इसका विवेचन ग्रन्थकार ने पाँचवें और छठे अध्यायों में किया है। इसमें शक नहीं कि ये अध्याय स्वयं एक-एक ग्रन्थ के विषय हैं, जिन्हें लिखने का अधिकार वाजपेयी जी रखते हैं, पर आज की परिस्थिति उन्हें ऐसा अवसर देगी, इसमें सन्देह है।
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि ग्रन्थ के कुछ सिद्धान्तों से लोगों का मतभेद होगा, पर ऐसे स्थल बहुत कम हैं। हमें 'यथोत्तर मुनीनां प्रामाण्यम्' की बात नहीं भूलनी चाहिए। वाजपेयीजी 'भारतीय भाषा-विज्ञान' के प्रथम मुनि हैं। उत्तर-मुनि भी आएँगे, जो प्रथम मुनि के कन्धे पर खड़े होकर और ऊपर उठेंगे। एक आधार मिल गया है।
- राहुल सांकृत्यायन
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