अज्ञेय ने लिखा है, समय कहीं ठहरता है तो स्मृति में ठहरता है। मगर संस्मरण में स्मृति जब आकार पाती है। तो ठहरा हुआ समय मानो एक बार फिर चलने लगता है। जैसे किसी ने समय को अपनी मुट्ठी में भर लिया हो और मौके पर मुट्ठी खोल दी हो। समय का यह चित्रण किसी फिल्म के फ्लैशबैक की तरह साफ भी नहीं होता। स्मृति के झरोखों में काफी कुछ छन जाता है। लेकिन इसी में स्मृति को फिर से रचने की सम्भावनाएँ खड़ी होती हैं। झरोखों से छनती धूप की तरह वह स्मृति हमें गुनगुना ताप और उजास देती है।
यह पुस्तक ऐसे ही संस्मरणों का संकलन है।
व्यक्तिपरक संस्मरणों में जितना वह व्यक्ति मौजूद रहता है जिसके बारे में संस्मरण है, उतना ही संस्मरण का लेखक भी। यों तो कोई वर्णन या विवेचन शायद पूर्णतः निष्पक्ष नहीं होता, पर ऐसे संस्मरण तो हर हाल में व्यक्तित्व और उसके कर्तृत्व का विशिष्ट निरूपण ही करते हैं। संस्मरण समय की मुट्ठी खोल जरूर देते हैं, लेकिन कौन जानता है किसने समय को किस नजर से देखा और कहाँ, कैसे पकड़ा! जैसी हथेली, वैसी पकड़।
लेकिन सी लेखकों के संस्मरण एक जगह जमा हों तो ? क्या वे एक लेखक के व्यक्तित्व और उसके रचनाकर्म की संश्लिष्टता को समझने में मददगार होंगे? इस सवाल के सकारात्मक जवाब की सम्भावना में प्रस्तुत उद्यम किया गया है। संकलन में 'हिन्दी साहित्य की सबसे पेचीदा शख्सियत' करार दिए गये सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' की जन्मशती के मौके पर सौ लेखकों के संस्मरण शामिल हैं। हर लेखक ने अज्ञेय को अपने रंग में देखा है। विविध रंगों से गुजरने के बाद, पूरी उम्मीद है, पाठक खुद अज्ञेय की स्वतन्त्र छवि बनाने - या बनी छवि को जाँच सकने होंगे। - में सक्षम
इन संस्मरणों में अज्ञेय की ज्यादातर वृत्तियों की छाया आपको मिलेगी। अलग-अलग कोण से अनेक संस्मरणों में ऐसी जानकारियाँ और अनुभव हैं, जो शायद पहले कभी सामने नहीं आये। हर लेखक हमारे सामने अपने देखे अज्ञेय को प्रस्तुत करता है और ये अपने अपने अज्ञेय जोड़ में हमें ऐसे लेखक और उसके जीवन से रूबरू कराते हैं, जिसे प्रायः टुकड़ों में - और कई बार गलत समझा गया।
- भूमिका से
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