खाद्य संकट की चुनौती -
पैसा, पॉवर और सेक्स की असाधारण भूख के इस दौर में दुनिया की एक अरब से ज़्यादा आबादी भूखे पेट सोती है। यह हमारे दौर की बड़ी विडम्बना है। बल्कि इसे दुनिया का नया आश्चर्य कहें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। पर यह विडम्बना कोई संयोग नहीं है। यह उत्पन्न इसीलिए हुई क्योंकि कुछ लोगों की ग़ैरज़रूरी भूख बढ़ गयी है और उन्होंने ज़रूरी भूख पर ध्यान देना छोड़ दिया है। इस क्रूर खाद्य प्रणाली ने अमीरों को भी तरह-तरह की बीमारियाँ दी हैं और धरती के पर्यावरण को भारी क्षति पहुँचायी है। यह क्षति बढ़ती गयी तो धरती सबका पेट भर पाने से इन्कार भी कर सकती है। खाद्य संकट की यह चुनौती हमें नये विकल्पों की तलाश के लिए ललकारती है।
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जनविरोधी नीतियाँ संकट में है। अमेरिका और यूरोप से लेकर चीन और भारत समेत पूरी दुनिया में इसका असर पड़ा है। पूँजी के दिग्विजयी अभियान पर ब्रेक लगा है तो लाखों लोगों की नौकरियाँ भी गयी है। उदारीकरण के समर्थक इसे कम करके दिखा रहे हैं और महज वित्तीय पूँजी का संकट बता रहे हैं, जबकि यह वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट है और पिछले ढाई दशक से चल रही आर्थिक नीतियों का परिणाम है। इसके कई आयाम हैं और उन्हीं में एक गम्भीर आयाम है खाद्य संकट। खाद्य संकट की जड़ें कृषि संकट में भी हैं और उस आधुनिक खाद्य प्रणाली में भी जिसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने मनुष्य और धरती के स्वास्थ्य की क़ीमत पर अपने हितों के लिए तैयार किया है। एक तरफ़ दुनिया के कई देशों में अनाज के लिए दंगे हो रहे हैं और दूसरी तरफ़ उच्च ऊर्जा के गरिष्ठ भोजन के चलते मोटापा, डायबटीज़, हृदय रोग जैसी तमाम बीमारियों ने लोगों को घेर रखा है। सुख-समृद्धि देने का दावा करने वाला पूँजीवाद सामान्य आदमी का पेट काट रहा है तो अमीर आदमी के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहा है। अर्थशास्त्री, जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक, योजनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, समीक्षक और साहित्यकार जैसे विविध बौद्धिकों की टिप्पणियों, विश्लेषणों और वर्णनों के माध्यम से यह संकलन खाद्य संकट को समझने का प्रयास है। पुस्तक के विभिन्न लेखक इस संकट के वैश्विक स्वरूप में भारत की स्थिति स्पष्ट करते हैं और साथ ही विश्व भर में विकल्प ढूँढ़ने के प्रयासों का ज़िक्र करते हुए यह हौसला देते हैं कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है।
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