‘धुन्ध से उठती धुन’ एक ऐसे ही ‘समग्र, समरसी गद्य’ का जीवन्त दस्तावेज़ है, निर्मल वर्मा के ‘मन की अन्तःप्रक्रियाओं’ का चलता-फिरता रिपोर्ताज, जिसमें पिछले वर्षों के दौरान लिखी डायरियों के अंश, यात्रा-वृत्त, पढ़ी हुई पुस्तकों की स्मृतियाँ और स्मृति की खिड़की से देखी दुनिया एक साथ पुनर्जीवित हो उठते हैं। एक तरफ़ जहाँ यह पुस्तक उस ‘धुन्ध’ को भेदने का प्रयास है, जो निर्मल वर्मा की कहानियों के बाहर छाई रहती है, वहीं दूसरी तरफ़ यह उस ‘धुन’ को पकड़ने की कोशिश है, जो उनके गद्य के भीतर एक अन्तर्निहित लय की तरह प्रवाहित होती है।
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