Lambee Kahaniyan 1,2 (2 Volume Set )

Hardbound
Hindi
93-5000-816-5
9789350008164
2nd
2014
1st,2nd
842
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जिसे हम कहानी कहते हैं, अंग्रेज़ी में वही 'शॉर्ट स्टोरी' है, लेकिन शॉर्टस्टोरी वह नहीं जिसे हिन्दी के कथा-साहित्य में हम लघुकथा कहते हैं। कहानी की रूप-संरचना शॉर्टस्टोरी की ही है। उपन्यास की तुलना में कहानी का आगमन हिन्दी में खासा देर से हुआ। कहानी का पदार्पण तब तक नहीं हुआ था जब तक पत्र-पत्रिकाओं का छपना शुरू नहीं हो गया । कहानी का जन्म और प्रसार पत्रिकाओं के प्रकाशन की शुरुआत के साथ जुड़ा है और पत्रिकाओं में उपलब्ध स्थान की सीमाओं ने कहानी के विस्तार को सीमित और परिभाषित किया है।

'हंस' के पहले अंक से ही लम्बी कहानी को एक नियमित स्थायी स्तम्भ की तरह शामिल करने का मन्तव्य यही था कि कहानी अपनी गुंजाइशों को चरम तक पहुँचा पाए क्योंकि बुनियादी कहानी का सरल विधान वर्णन पर आधारित होता है जबकि कहानी के लम्बे रूपों में नाटकीय संरचना के बीज तत्त्व दिखाई देते हैं। जैसा कि शुरू में ही कहा, लगभग दस वर्ष तक चलने वाले इस स्तम्भ में लगभग सवा सौ लम्बी कहानियाँ छपीं। कभी द्रुत में सामाजिक सरोकारों, दृष्टिकोण की बहुलताओं और टकराहटों को सरपट नापती हुई, कभी विलम्बित में धीरे-धीरे खुलती, फैलती अपने कथ्य के कोनों अंतरों को भरती लास्य में अलस और शिथिल । लम्बी कहानी एक सबल और समर्थ कथारूप की तरह स्थापित हो चुकी है, यह आज की युवा रचनाशीलता को देखते स्वयं प्रमाणित है ।
हिन्दी में कहानी के विस्तार-विधान की अपर्याप्तता के अहसास के साथ, नियम-निर्देश के सजग प्रयास के बिना ही रचनात्मक आयास के द्वारा उसे फैलाया जाता रहा। अकादमिक हलकों में नॉवेल्ला का यह जर्मन लक्षण शायद उसके जर्मन होने के प्रति सजगता के बिना ही, कहानी की परिभाषा के सहारे ही लम्बी कहानी को भी समझते हुए, शायद कुछ अस्पष्ट अनिश्चय के भाव से काफी समय तक उपन्यासिका और लम्बी कहानी के लिए व्यावर्तक विधान का काम करता रहा। आकार की समानता के बावजूद लम्बी कहानी को एकोन्मुखी गन्तव्य की ओर एकाग्र वृत्तान्त की इकहरी संरचना मानते हुए उसे उपन्यासिका से इस आधार पर अलग किया जाता रहा कि वह अनेक उपकथाओं और एकाधिक सहवर्ती वस्तुओं के योग से निर्मित जटिल विन्यास है।

कहानी का एक प्रकार गिनाने के लिए भले ही इकहरी वस्तु की सरल संरचना आज भी एक स्वीकृत परिभाषा हो, वस्तुतः यथार्थ की जटिलताओं से निपटने के लेखकीय कौशल के सहारे कहानी मात्र - लम्बी या छोटी- अपने आप में एक जटिल विन्यास का रूप धारण कर चुकी है, अन्तर केवल फलक के बड़े या छोटे होने का रह गया है।

विश्व साहित्य में नॉवेल्ला की तरह आज हिन्दी में भी लम्बी कहानी समसामयिक यथार्थ के अनुकूल रचनाविधान की तरह अपनी जगह बनाती हुई दिखाई दे रही है। शायद गर्वोक्ति न होगी, तथ्य का बयान कभी गर्वोक्ति नहीं होती, कि 'हंस' के दस साल लम्बे स्तम्भ ने इसके लिए मौसम बनाया था और आज इस विधा पर जिनका विशेषाधिकार दिखाई देता है, जिनकी छाया शेष परिदृश्य पर न केवल मौजूद, बल्कि मौसम बनाने में भी सक्रिय है वे 'सूखा', 'और अन्त में प्रार्थना', 'कॉमरेड का कोट', 'आर्तनाद', 'तिरिया चरित्तर', 'जल-प्रान्तर', 'झउआ - बैहार', 'साज़ - नासाज़' जैसी कहानियाँ हंस के पृष्ठों पर ही नमूदार हुई थीं।

राजेन्द्र यादव (Rajendra Yadav)

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अर्चना वर्मा (Archana Verma)

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राजेन्द्र यादव (Rajendra Yadav)

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